Sunday, September 24, 2023

डॉ. सिग्मण्ड फ्रायड मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त : मूल संप्रत्यय (Life & Death Instinct)

फ्रायड ने  मनोविश्लेषण सिद्धान्त एक साथ योजनाबद्ध तरीके से किसी सिद्धांत की रचना का उद्देश्य लेकर प्रतिपादित नहीं किया गया था बल्कि इसकी अवधारणाएँ उनके दीर्घकालिक अनुभवों पर आधारित हैं।  इस सिद्धान्त का आधार फ्रायड द्वारा मनोरोगियों के उपचार के दौरान प्राप्त आँकड़ें हैं जो समय-समय पर उनके अनुभव में आते रहे हैं। इसीलिए यह सिद्धान्त इतनी व्यापकता लिए हुए है। मानसिक रोगियों के उपचार से प्राप्त फ्रायड के अनुभवों का वर्णन एक इतने बड़े सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित हो गया कि इसने केवल मनोविज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि कला, साहित्य के क्षेत्र में भी नए-नए आयाम दिए। यह मानव व्यवहार की व्याख्या का एक महत्वपूर्ण मॉडल बनकर उभरा। जिसका उपयोग प्रशंसकों ने ही नहीं वरन आलोचकों ने भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बखूबी किया। फ्रायड के इस विचारधारा से कुछ अलग हटकर किन्तु उनके मूल भावों को सराहते हुए कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसकी अलग से व्याख्या प्रस्तुत की।

इन सबमें सी० जी० युंग, अल्फ्रेड एडलर, कार्ल मेमिनगर, केरेन हॉर्नी, एरिक फ्रेम, हेरी स्टेक सुलिभान एवं स्वयं फ्रायड की पुत्री अन्ना फ्रायड आदि मुख्य रूप से सम्मिलित हैं।[1] फ्रायड का यह सिद्धान्त उनकी नैदानिक जाँच के फलस्वरूप "थोड़ा-थोड़ा करके उभरा" लेकिन जैसे-जैसे वह परत दर परत उजागर करते गए यह विस्तृत रूप लेता चला गया।

इस सिद्धान्त की व्यापकता के ही इसका एक स्वतंत्र स्कूल 'मनोविश्लेषणवाद' ,'1912' में स्थापित हुआ। इस सिद्धान्त को स्पष्ट करने के इसमें सन्निहित सम्प्रत्ययों पर दृष्टि डालना अति आवश्यक है। इसको सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित प्रमुख भागों में बाँट सकते हैं -

(5.3.1) मानसिक ऊर्जा तथा मूल प्रवृत्ति का सिद्धान्त

(5.3.2) मनोसंघर्ष एवं द्वन्द का सिद्धान्त

(5.3.3) मानसिक पहलू का सिद्धान्त

5.3.1 मानसिक ऊर्जा तथा मूल प्रवृत्ति का सिद्धान्त

फ्रायड का मत था कि मानव जाति में एक जटिल ऊर्जा तंत्र (complex energy system) पाया जाता है। इसमें उन्होंने दो प्रकार की ऊर्जा शक्तियों का वर्णन  किया है।  यह दोनों ऊर्जा शारीरिक ऊर्जा (physical energy)  तथा मानसिक ऊर्जा (mental energy) के नाम से जानी जाती हैं। शारीरिक ऊर्जा की उत्पत्ति भोजन (food) से होती है और इसका उपयोग शारीरिक क्रियाओं जैसे — साँस लेना, चलना-फिरना, दौड़ना, वजन उठाना, लिखना आदि में किया जाता है। मानसिक ऊर्जा की उत्पत्ति उत्तेजन के न्यूरोदैहिक अवस्था से होती है। फ्रायड ने बताया कि इड ही वह बिन्दु है जो शारीरिक ऊर्जा तथा मानसिक ऊर्जा के बीच मध्यस्थता करता है। फ्रायड का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति में मानसिक ऊर्जा की को उन मानसिक क्रियाओं के करने में खर्च करता है जो विभिन्न तरह की आवश्यकताओं  से उत्पन्न शारीरिक उत्तेजन को कम करती हैं।  इन शारीरिक उत्तेजनों  या आवश्यकताओं के मनोवैज्ञानिक या मानसिक कल्पना या चित्रण को मूलप्रवृत्ति कहा जाता है । दूसरे शब्दों में किसी दैहिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए जो इच्छा या मनोवैज्ञानिक कल्पना मनुष्य के भीतर उभरती है होता है, उसे ही ‘मूलप्रवृत्ति ’(instinct) कहा जाता है। जैसे प्यास लगने पर शारीरिक कोशिकाओं में पानी की कमी मनुष्य को महसूस होती है और प्यास की मूल प्रवृत्ति मानसिक इच्छा के रूप में अभिव्यक्त होती है और मनुष्य सहसा ही बोल पड़ता है " जरा एक गिलास पानी देना"। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मूलप्रवृत्ति, एक तरह का आन्तरिक प्रणोद होता है जो सतत अभिप्रेरणात्मक बल के रूप में क्रिया करता है। मूलप्रवृत्ति की उत्पत्ति तो इड से अवश्य होती है परन्तु उसका नियंत्रण ईगो द्वारा होता है।  जेम्स सी कोलेमन के अनुसार " मूल प्रवृत्ति से हमारा आशय अधिगम के बिना निश्चित दशाओं में विशिष्ट व्यवहार के प्रतिमानों को निर्धारित करने वाली विशेषता से है[2]

मूल प्रवृत्तियों को फ्रायड ने मनुष्य के द्वारा किये जाने वाले व्यवहार का मूल कारण मन है। यही प्रवृत्तियाँ मनुष्य के लिए उन आंतरिक प्रेरणाओं का कार्य करती हैं जिनसे वशीभूत होकर उसका व्यवहार निर्धारित होता है।  फ्रायड ने मनुष्य की इन मूल प्रवृत्तियों को दो भागों में विभाजित किया है। पहली 'जीवन मूलप्रवृत्ति' तथा दूसरी 'मृत्यु मूलप्रवृत्ति'।  जीवन मूल प्रवृत्ति को फ्रायड ने 'इरोस' तथा मृत्यु मूल प्रवृत्ति को ' थैनेटोस' नाम दिया है। इरोस ग्रीस का देवता है जो प्रेम, जीवेष्णा, उर्वरता और जूनून का प्रतीक है। इससे ही प्रभावित होकर व्यक्ति सहयोग, स्नेह, पारस्परिक सद्भाव और सामाजिक समरसता का व्यवहार करता है। दूसरे थैनेटोस को मनुष्य के स्वयं तथा दूसरे को नुकसान पहुँचाने तथा विध्वंस व्यवहार के लिए उत्तरदायी मन गया है। 

डेविड कापुज़्ज़ी ने लिखा है कि "जीवन प्रवृत्ति व्यक्ति और प्रजातियों दोनों के जीवन के संरक्षण पर केंद्रित है।"[3] यह प्रवृत्ति लोगों को ऐसे कार्यों में संलग्न होने के लिए मजबूर करता है जो उनके स्वयं के जीवन को बनाए रखते हैं, जैसे कि उनके स्वास्थ्य और सुरक्षा की देखभाल करना। यह लोगों को नए जीवन के निर्माण और पोषण के लिए प्रेरित करते हुए, यौन ड्राइव के माध्यम से भी खुद को मजबूत करती है। इसीलिए फ्रायड द्वारा भी इसमें यौन मूलप्रवृत्ति को काफी महत्व दिया गया है। जीवन ड्राइव द्वारा बनाई गई ऊर्जा को कामेच्छा के रूप में जाना जाता है। इस ऊर्जा को फ्रायड ने 'लिबिडो' के नाम से सम्बोधित किया है। फ्रायड ने लिबिडो को केवल यौन प्रवृत्ति से ऊपर भी बताया है। इससे उनका तात्पर्य न केवल लैंगिग सुख से है बल्कि अन्य शारीरिक क्षेत्रों से उत्पन्न आनंद से है। जीवन मूल प्रवृत्ति बुनियादी अस्तित्व, आनंद और प्रजनन से संबंधित है। जबकि हम यौन प्रजनन के संदर्भ में जीवन की प्रवृत्ति के बारे में सोचते हैं, इन वृत्तियों में प्यास, भूख और दर्द से बचाव जैसी प्रवृत्ति भी शामिल है।



फ्रायड ने सबसे पहले अपने निबंध "बियॉन्ड द प्लेजर प्रिंसिपल" में मृत्यु मूल प्रवृत्ति की अवधारणा पेश की। उन्होंने यह सिद्धांत दिया कि मनुष्य मृत्यु और विनाश की ओर प्रेरित होते हैं, प्रसिद्ध रूप से यह घोषणा करते हुए कि "सभी जीवन का उद्देश्य मृत्यु है[4] जॉन स्मिथ के शब्दों में "फ्रायड का मानना ​​​​था कि लोग आमतौर पर इस मृत्यु की मूल प्रवृत्ति को बाहर की ओर ले जाते हैं, जो दूसरों के प्रति आक्रामकता के रूप में प्रकट होता है।" लोग इस प्रवृत्ति को भीतर की ओर भी निर्देशित कर सकते हैं, जिसके परिणाम आत्म-नुकसान या आत्महत्या के रूप में सामने आते हैं[5]

फ्रायड ने इस सिद्धांत को नैदानिक ​​​​टिप्पणियों पर आधारित किया, यह देखते हुए कि जो लोग एक दर्दनाक घटना का अनुभव करते हैं वे अक्सर इसे फिर से बनाते हैं या फिर से देखते हैं। उदाहरण के लिए  उन्होंने नोट किया कि प्रथम विश्व युद्ध से लौटने वाले सैनिकों ने सपनों में अपने दर्दनाक अनुभवों को फिर से देखने की कोशिश की, जो उन्हें बार-बार मुकाबला करने के लिए वापस ले गए। देखने में तो यह आता है कि ये दोनों मूल प्रवृत्तियाँ कभी-कभी एक दूसरे के साथ अंतःक्रिया करती हैं। एक साथ मिलकर काम करते भी देखी जाती हैं। जैसे भोजन करने की क्रिया का उदाहरण लिया जाये तो हम देखते हैं कि भोजन ग्रहण करने की क्रिया जीवन की मूल प्रवृत्ति को सम्पोषित करता है लेकिन भोजन को चबाना, काटना और निगलना जैसी ध्वंसात्मक क्रियाएँ भी साथ में हो रही होती हैं जो कि मृत्यु की मूल प्रवृत्ति की प्रतीक हैं। कभी यह भी देखा गया है कि यह मूल प्रवृत्तियाँ एक-दूसरे की प्रतिद्वंदी भी हो जाती हैं। जब ऐसा होता है तो उसमें मृत्यु मूल प्रवृत्ति की अधिकता देखी जाती है। जैसे दो प्रेमी जोड़े विवाह करके अपना घर बसाना चाहते हैं लेकिन सामाजिक प्रतिरोध में आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं। जहाँ घर बसाना जीवन मूल प्रवृत्ति का प्रतीक है और आत्महत्या मृत्यु मूल प्रवृत्ति का प्रतीक है।

5.3.2 मनोसंघर्ष एवं द्वन्द का सिद्धान्त

मनोसंघर्ष से तात्पर्य है मन के भीतर चलने वाला संघर्ष। मानसिक संघर्ष को ही मानसिक द्वन्द के नाम से भी जाना जाता है। मनुष्य को जीवन में अनेक पार द्वंदों की अनुभूति होती रहती है। जीवन में अनेक ऐसे मोड़ आते हैं जहाँ व्यक्ति मनोसंघर्ष में उलझ जाता है। यह द्वन्द उस समय पैदा होते हैं जब व्यक्ति के समक्ष उपलब्ध लक्ष्यों में से किसी एक का चयन उसे करना पड़ता है। हालाँकि उसे सभी लक्ष्य पसंद आ रहे हो लेकिन जब चुनने की स्थिति किसी एक की ही होती है तो यह द्वन्द पैदा होता है। मनोविज्ञान में मनोसंघर्ष उसे कहा जाता है जब दो या दो से अधिक उद्देश्यों की उत्तेजना हो जिन्हें एक साथ हल नहीं किया जा सकता। संघर्ष अक्सर अचेतन होते हैं, इस अर्थ में कि व्यक्ति स्पष्ट रूप से अपने संघर्ष के स्रोत की पहचान नहीं कर सकता है। स्ट्रेंज (1965) के अनुसार "जब आपस में मेल न खाने योग्य प्रवृत्तियाँ एक साथ अभिव्यक्त होना चाहती हैं, तो इससे मनोसंघर्ष पैदा होता है चूँकि यह एक दूसरे की परस्पर विरोधी होती है, इसलिए एक-दूसरे को अवरुद्ध करती हैं जिससे व्यक्ति के भीतर संघर्ष उत्पन्न होता है। यह संघर्ष तब तक व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ रखता है जब तक वह एक पक्ष को स्थगित तथा एक पक्ष का चयन नहीं कर लेता है। उदाहरण के लिए एक बच्चे के माता-पिता उसको 11 वीं कक्षा में विज्ञान वर्ग का चयन करने को कहते हैं और वह बच्चा कला वर्ग लेना चाहता है। दोनों एक साथ लेना संभव नहीं है और जो भी वर्ग बच्चा लेगा उसके लिए कर्म तो उसे ही करना पड़ेगा। माता-पिता तो आंशिक सहयोगी हो सकते हैं जबकि वर्ष भर पढ़ना तो बच्चे को ही पड़ेगा। यह बच्चे के भीतर भारी संघर्ष पैदा कर देगा और यह तब तक शांत नहीं होगा जब तक वह किसी एक वर्ग का चयन और त्याग न कर ले। विद्वानों ने द्वन्द चार प्रकार बताये हैं -

Ø  दृष्टिकोण-दृष्टिकोण संघर्ष  (Approach - Approach Conflict)

Ø  परिहार-परिहार संघर्ष  (Avoidance - Avoidance Conflict)

Ø  दृष्टिकोण-परिहार संघर्ष (Approach - Avoidance Conflict)

Ø  द्वि दृष्टिकोण-परिहार संघर्ष (Double Approach - Avoidance Conflict)[6]

फ्रायड ने सचेत जागरूकता के स्तर से नीचे के मानसिक संघर्ष को अचेतन संघर्ष कहा जाता है। सचेत स्तर पर संघर्ष का जब दमन किया जाता है, तो अचेतन में बदल जाता है। यहां वे इच्छाएं जो चेतन स्तर पर संतुष्ट नहीं हो सकतीं, पलायन के एक तंत्र के रूप में अचेतन स्तर तक दमित कर दी जाती हैं। इड द्वारा उठाई गई हमारी कई इच्छाएं सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं हो सकती हैं। इस तरह की इच्छाओं का ईगो और सुपर ईगो द्वारा विरोध किया जाता है। इसलिए इन्हें अचेतन में दबा दिया जाता है। दमित इच्छाएँ या इच्छाएँ हमारे मन के अचेतन भाग में सक्रिय रहती हैं। वे अन्य समान अनुभवों के साथ गठबंधन करके धीरे-धीरे ताकत इकट्ठा करते हैं और मजबूत हो जाते हैं। दमित चाहतों का यह समूह जो संतुष्टि के लिए काम कर रहा है, होश में वापस आने की कोशिश करता है।  इस प्रक्रिया से भीतर कॉम्प्लेक्स बनते हैं, वे अचेतन में संघर्षों को जन्म देते हैं। वे वापस होश में आने की कोशिश करते हैं, लेकिन अवचेतन या अचेतन द्वारा रोका जाता है। इसलिए जब सेंसर आराम कर रहा होता है या सो रहा होता है तो वे सचेत स्तर पर प्रवेश करने की कोशिश करते हैं। वे सपने, जीभ का फिसलना, कलम का फिसलना, प्रेरित भूलने आदि के रूप में प्रकट हो सकते हैं। कभी-कभी वे अजीबोगरीब व्यवहार और तौर-तरीकों के रूप में प्रकट हो सकते हैं। फ्रायड ने इन्हें ही दैनिक जीवन मनोविकृतियाँ कहा है।

फ्रायड ने अपनी पुस्तक "साइकोपैथोलॉजी ऑफ़ एवरीडे लाइफ"(1914) में इन मनोवृत्तियों का वर्णन किया है। इनमें जबान फिसलना, लिखने में भूल होना, किसी व्यक्ति या स्थान के नाम भूल जाना, पहचानने में भूल करना, सामान को इधर-उधर रखकर भूल जाना आदि प्रमुख हैं।[7] फ्रायड ने इन दैनिक जीवन की भूलों या मनोवृत्तियों से बचने या इन्हें नज़रअंदाज करने की मनुष्य की प्रवृत्ति का भी वर्णन किया है जिसके बारे में विस्तृत रूप से हम आगे चर्चा करेंगे।

5.3.3 मानसिक पहलू का सिद्धान्त

फ्रायड का यह विचार है कि व्यक्ति के व्यवहार के पीछे निहित तत्वों को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसके व्यक्तित्व के विकास तथा संगठन का उचित तरीके से अध्ययन किया जाये। यह अध्ययन व्यक्ति के मन तथा मानसिक पहलू के अध्ययन के बिना पूर्ण नहीं हो सकता है। फ्रायड के अनुसार मानसिक पहलू वह है जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजित करने में मदद करते हैं। फ्रायड दो प्रकार के पहलुओं के अध्ययन पर बल दिया है -

(क) मन का आकारात्मक या स्थलाकृतिक पहलू (Topographical aspect)

(ख) मन का गत्यात्मक या संरचनात्मक पहलू (Dynamic or Structural aspect)

(क) मन का आकारात्मक या स्थलाकृतिक पहलू

मन के आकारात्मक पहलू से तात्पर्य उस पहलू से होता हैं जहाँ संघर्षमय परिस्थिति की गत्यात्मकता उत्पन्न होती है। व्यक्तित्व की गतिशील शक्तियों के बीच होने वाले संघर्षों का मैदान ही मन का स्थलाकृतिक पहलू है। ब्राउन (1960) ने इस पहलू को अपने शब्दों में परिभाषित करते हुए कहा है कि "मन का आकारात्मक पहलू वह है जहाँ संघर्षमय परिस्थितियों की गत्यात्मकता उत्पन्न होती है[8] फ्रायड द्वारा प्रतिपादित इस पहलू के अनुसार मन को तीन भागों में बाँटा जाता है। चेतन, अर्धचेतन तथा अचेतन।

(ख) मन का गत्यात्मक या संरचनात्मक पहलू

मन के गत्यात्मक पहलू से तात्पर्य मन के उन साधनों या प्रतिनिधियों से है जिनके द्वारा मूल प्रवृत्तियों द्वारा उत्पन्न द्वंदों और मानसिक संघर्षों का समाधान होता है। मूल प्रवृत्तियों और उनसे उत्पन्न होने वाले मानसिक संघर्षों के बारे में हम पिछले क्रमों में चर्चा कर चुके हैं। फ्रायड ने मन को संरचनात्मक पहलू तथा विकासात्मक दृष्टिकोण से तीन भागों में बाँटा है।  इड (id), ईगो (ego), सुपर ईगो (super ego) एक प्रकार की मानसिक एजेंसी होती है जो जन्मजात होती है तथा व्यक्ति की शारीरिक संरचना से सम्बन्ध होता है। लिण्डजे (1998) के अनुसार "इड, ईगो, सुपर ईगो में अंतर्क्रिया होती रहती है और व्यक्ति का व्यवहार इनमें होने वाली अंतर्क्रिया का परिणाम होता है।"[9] 


[1] सिंह, अरुण कुमार, (2008), आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान, नई दिल्ली : श्री जैनेन्द्र प्रेस, पृ०- 170

[2] Coleman, James C., (1979), Abnormal Psychology and Modern Life, Northbrook, Illinois: Scott Foresman & Co, p. 143.

[3] Capuzzi, David, (2016), Counselling and Psychotherapy Theories and Interventions, USA: John Wiley & Sons, p. 73.

[4] Freud, Sigmund, (1975), Beyond the Pleasure Principle, London: W-W-Norton & company, p. 54

[5] Jones-Smith, Elsie, (2020), Theories of Counselling and Psychotherapy-An Integrative Approach, Thousand Oaks, CA 91320: SAGE publishing, p.374.

[6] Miller, N. E. (1944). Experimental studies of conflict. In

J. M. Hunt (Ed.), Personality and the behaviour disorders (pp. 431–465). New York: Ronald

[7] Freud, Sigmund, (1914), Psychopathology of everyday life, New York: The Macmillan Company

[8] कुमार, डॉ राज, (2021), हिन्दी साहित्य में मनोविश्लेषण : सैद्धांतिक स्वरूप, दिल्ली : कल्पना प्रकाशन, पृ० - 32

[9] Lindzey, Gardner, (1998), Theories of personality, New York: S J. Wiley & Sons company, p. 127.

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